आज मुनव्वर राना की ये ग़ज़ल में अपने शुभचिंतक जनाब सतीश सक्सेना साहब की नज़र करता हूँ.
जब कभी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूं
रोज़ उंगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है
दिल की गलियों से तिरी याद निकलती ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है
रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है
एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है
ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए
कूचा - ए - रेशमो - किमख़्वाब में आ जाती है
दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है
महताब=चांद; रिदा= चादर
दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
ReplyDeleteसारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है
@ महेंद्र मिश्र
ReplyDeleteशुक्रिया
सहसपुरिया साहब ,
ReplyDeleteब्लॉग जिन्हें मैं फालो करता हूँ, पर नज़र पड़ते ही, अपने नाम यह पोस्ट देख चौंक गया मैं , पता नहीं आपको क्या अच्छा लगा जो इतनी खूबसूरत ग़ज़ल भेंट दी है मुझे ! जहाँ तक मुझे याद आता है, शायद ही कभी आपकी तरफ ध्यान दे पाया मैं ! पता नहीं ऐसे नालायक दोस्त को यह कीमती तोहफा आपने क्यों दिया, हमने तो ख़ुशी ख़ुशी कबूल कर लिया शुक्रिया आपका !
खैर,
" जब कभी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती "
बेहतरीन लाइनें लिखी हैं मुनव्वर राना ने ...लगता है दो लाइनों में पूरी किताब की कहानी लिख दी है, एक अम्मा ही तो है जो हर मुसीबत में साथ खड़ी नज़र आती है ! मैं कुछ ऐसे बदकिस्मत इंसानों में से एक हूँ जिसे यह प्यार नसीब नहीं हुआ और न यह दुनिया की सबसे खूबसूरत शक्ल देख पाया ! आज भी तडपता हूँ की शायद ख्वाब में ही मेरी माँ मुझे दिख जाए उसके लिए चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए !
वे बड़े बदकिस्मत लोग हैं जो जीते जी अपनी माँ की क़द्र नहीं कर पाते ...दुनिया में खुदा को किसी ने नहीं देखा मगर जिसने हमें जन्म दिया, जिसके शरीर का खून पाकर हम इस संसार में आये उसे हमने क्या दिया ?? माँ के प्रति मुनव्वर राना की यह खूबसूरत लाइने भी , माँ के प्यार के सामने एक ज़र्रा भी नहीं है !
और आखिर में ,
जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं, अगर मौत के समय किसी की आंख में, आंसू का एक कतरा देख कर प्राण त्याग करें तो लगेगा कि जीवन सफल हो गया !
शुभकामनायें भाई जी !
सतीश भाई, में आपसे नही मिला ना ही आपसे बात हुई है, फिर भी में आपकी PERSONALITY से बेहद मुतासिर हूँ, आपके जैसा रहम दिल ,दूसरो की मदद के लिए हमेशा हाज़िर, आज के दौर में बहुत कम लोग हैं ,या फिर यूँ कहिए ये दुनिया शायद इसी लिए बची हुई है की आप जैसे लोग इस दुनिया में भी हैं.
ReplyDeleteज़्यादा कुछ ना कहूँगा बस प्रेम बनाए रखिएगा, दुआओं में याद रखिएगा
बहुत उम्दा शॆर संकलित किये हैं, अच्छा लगा पढ़कर.
ReplyDeleteबढ़िया ग़ज़ल...प्रस्तुति के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteजय भीम ! बाबा साहब और दलितों की प्रशंसा में किसी शायर ने कुछ कहा हो तो पेश कीजिये वर्ना माना जायेगा कि शायर भी दलितों के दर्द के प्रति सवर्णों की ही तरह बेदर्द होते हैं ।
ReplyDeleteसहसपुरिया साहब ,
ReplyDeleteआपका अपनापन तो हमेशा ही महसूस करता रहा हूँ , यह इस ब्लाग जगत की देन है ! जहां तक आपकी भावनाओं का प्रश्न है यह आपका प्यार है जो मुझे अच्छा पाते हैं :-) यहाँ मुझे गाली देने वालों की कमी नहीं है भाई ! मैं तो अपने आपको अयोग्य, लापरवाह और आज के समय के लिए सर्वथा अनफिट भी मानता हूँ ! खैर
आपका शुक्रिया !
@ उड़न तश्तरी, विनोद कुमार पांडे,
ReplyDeleteहोसला बड़ाने के लिए आप लोगो का शुक्रिया
@सत्या गौतम
शायर तो संवेदनशील होते है, जहाँ कहीं भी ज़ुल्म होता है तो इक शायर ही है जो आवाज़ उठाता है.
@सतीश सक्सेना
इस प्रेम के लिए शुक्रिया ही है मेरे पास... वैसे भी हीरे की क़द्र ज़ोहरी ही जानता है
BAHUT KHOOB....WAH WAH WAH
ReplyDeleteसतीशजी वाकई एक अच्छे आदमी है। मैं उनके बारे में बहुत ज्यादा तो नहीं जानता लेकिन मेरा दिल कहता है कि जो आदमी दूसरों के दुख में यदि अपना बनकर शरीक होता है तो वह बुरा कैसे हो सकता है।
ReplyDeleteमैं दिल की बात पर हमेशा यकीन करता हूं। आपने ठीक किया उन्हें गजल समर्पित करके।
आपका शुक्रिया।
शानदार रचना ,आभार
ReplyDelete@ राजकुमार सोनी, अजय कुमार
ReplyDeleteआप दोनो तशरीफ़ लाए, शुक्रिया , बस इसी तरह से रहनुमाई करते रहिए.
बेहतरीन ग़ज़ल!
ReplyDeleteजो जात पात.की तारीफ़ और बुराई में कुछ कहे..
ReplyDeleteवो शायर नहीं ...
जब कभी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
ReplyDeleteमां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है ।
यह पंक्तियां दिल को छू गई, भावपूर्ण प्रस्तुति के लिये आभार ।