Sunday, July 25, 2010

सुदर्शन फ़ाकिर की मशहूर ग़ज़ल

लीजिए पेश है सुदर्शन फ़ाकिर की मशहूर ग़ज़ल...

चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

लिखा हुआ था जिस किताब में, कि इश्क़ तो हराम है
हुई वही किताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

लबों से लब जो मिल गये, लबों से लब जो सिल गये
सवाल ग़ुम जवाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
*सुदर्शन फ़ाकिर

Wednesday, July 21, 2010

दुनिया की अज़ीम हस्ती माँ - 2

जनाब मुनव्वर राना साहब के चन्द शे'र माँ की शान में, पेशे खिदमत हैं.


मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ

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गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं

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कभी —कभी मुझे यूँ भी अज़ाँ बुलाती है
शरीर बच्चे को जिस तरह माँ बुलाती है

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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

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ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

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अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिन्दों के न होने पर शजर अच्छा नहीं लगता


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मेरा खुलूस तो पूरब के गाँव जैसा है
सुलूक दुनिया का सौतेली माओं जैसा है

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रौशनी देती हुई सब लालटेनें बुझ गईं
ख़त नहीं आया जो बेटों का तो माएँ बुझ गईं

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वो मैला—सा बोसीदा—सा आँचल नहीं देखा
बरसों हुए हमने कोई पीपल नहीं देखा

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कई बातें मुहब्बत सबको बुनियादी बताती है
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है

Saturday, July 17, 2010

दुनिया की अज़ीम हस्ती माँ - 1

आज मुनव्वर राना साहब के चन्द शे'र दुनिया की अज़ीम हस्ती माँ की शान में कहे गये पेश हैं.

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

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हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते

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हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं
सगी है या कि सौतेली है माँ बच्चे समझते हैं

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हवा दुखों की जब आई कभी ख़िज़ाँ की तरह
मुझे छुपा लिया मिट्टी ने मेरी माँ की तरह

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सिसकियाँ उसकी न देखी गईं मुझसे ‘राना’
रो पड़ा मैं भी उसे पहली कमाई देते

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मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है

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भेजे गए फ़रिश्ते हमारे बचाव को
जब हादसात माँ की दुआ से उलझ पड़े

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लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

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तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर
फ़र्श पर सोता हुआ बेटा बहुत अच्छा लगा

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इस चेहरे में पोशीदा है इक क़ौम का चेहरा
चेहरे का उतर जाना मुनासिब नहीं होगा

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अब भी चलती है जब आँधी कभी ग़म की ‘राना’
माँ की ममता मुझे बाहों में छुपा लेती है

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मुसीबत के दिनों में हमेशा साथ रहती है
पयम्बर क्या परेशानी में उम्मत छोड़ सकता है

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जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा
मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा

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देख ले ज़ालिम शिकारी ! माँ की ममता देख ले
देख ले चिड़िया तेरे दाने तलक तो आ गई

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मुझे भी उसकी जदाई सताती रहती है
उसे भी ख़्वाब में बेटा दिखाई देता है

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मुफ़लिसी घर में ठहरने नहीं देती उसको
और परदेस में बेटा नहीं रहने देता

*मुनव्वर राना

Tuesday, July 13, 2010

गुलज़ार साहब की खूबसूरत ग़ज़ल

मशहूर फिल्मी गीतकार जनाब गुलज़ार साहब की इक बहुत खूबसूरत ग़ज़ल पेश है, उम्मीद है पसंद आएगी.

खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में
एक पुराना खत खोला अनजाने में

जाना किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में
दर्द मज़े लेता है जो दुहराने में

शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे
ज़रा सी धूप दे उन्हें मेरे पैमाने में

दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता है वीराने मे ।

Sunday, July 11, 2010

दाग़ दहलवी की ग़ज़ल

दाग़ दहलवी की ग़ज़ल के चन्द अश्'आर पेशे ख़िदमत हैं

कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले
तलाश में हो कि झूठा कोई गवाह मिले

तेरा गुरूर समाया है इस क़दर दिल में
निगाह भी न मिलाऊं तो बादशाह मिले

मसल-सल ये है कि मिलने से कौन मिलता है
मिलो तो आँख मिले, मिले तो निगाह मिले

Friday, July 9, 2010

शकील बदायूनी मशहूर ग़ज़ल

आज कुछ पुराने दीवान देख रहा था, उनमे मुझे मरहूम शकील बदायूनी की इक बहुत मशहूर ग़ज़ल मिली. लीजिए आपकी पेशे खिदमत है...

ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया

यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

कभी तक़्दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया

Wednesday, July 7, 2010

डा० वसीम बरेलवी मेरे पसंदीदा शायर

डा० वसीम बरेलवी मेरे पसंदीदा शायर हैं , उनकी इक और ग़ज़ल पेशे ख़िदमत है.

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे

घर सजाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है
पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे

क़हक़हा आँख का बरताव बदल देता है
हँसनेवाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे

कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा
एक क़तरे को समुन्दर नज़र आयें कैसे

Monday, July 5, 2010

वसीम बरेलवी मेरे पसंदीदा शायर

वसीम बरेलवी

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है

नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है

थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है

बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है

सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है

मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है

Friday, July 2, 2010

सतीश सक्सेना साहब की नज़र

आज मुनव्वर राना की ये ग़ज़ल में अपने शुभचिंतक जनाब सतीश सक्सेना साहब की नज़र करता हूँ.

जब कभी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है

मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है



रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूं

रोज़ उंगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है



दिल की गलियों से तिरी याद निकलती ही नहीं

सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है



रात भर जागते रहने का सिला है शायद

तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है



एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा

सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है



ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए

कूचा - ए - रेशमो - किमख़्वाब में आ जाती है



दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें

सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है




महताब=चांद; रिदा= चादर